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देश शर्मसार है
देश की महिमा अपार है ।
सबको समान अधिकार है ।
जनता की सरकार है ।
नेताओं की खुब बहार है ।।
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सजी दिल्ली दरबार है ।
रौनक शहर चार है ।
पुंजीवाद का प्रसार है ।
प्रगति का प्रचार है ।।
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जाति-धर्म जनमत का आधार है ।
धुर्तों के कंधे पर देश का भार है ।
खुला उनके किस्मत का द्वार है –
जो नारे दिए- ‘देश का करना उद्धार है ।।
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अधुरा स्वप्न अब साकार है ।
‘लूट सको तो लूटो’ यही सार है ।
उसका जीवन बेकार है ।
जिसके पास न चमचमाती कार है ।
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झोपडि़यों में अंधकार है ।
जनता को देखने का क्या दरकार है ।
हर ओर से पड़ रही मार है ।
निरीह किसान इसका शिकार है ।
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मज़दूरों को न मिलती उचित पगार है ।
दबा दी जाती जो भी चित्कार है ।
एक तो हुई राजनीति व्यापार है ।
दूजी पूंजीवाद की दोधारी तलवार है ।।
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चोर-उच्चकों की भरमार है ।
हर ओर भष्टाचार है ।
झूठ-फरेब़ का बाजार है ।
‘सत्य-अहिंसा’ बेबस – लाचार है ।।
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हिंदी में बोले तो कहते गवार है ।
अंग्रेजी के गुलामों का ऐसा व्यवहार है ।
देश से इनको बनावटी प्यार है ।
इसलिए आज देश शर्मसार है ।।
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